विकासशील से विकसित तक

हमारी दुनिया में सबसे सुंदर एवं संपन्न प्रकृति ही है, लेकिन ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रकृति कभी हार नहीं मानती है। एक बार नष्ट होने के बाद प्रकृति का दोबारा उदय होता है और एक यह भी कारण है कि प्रकृति के सभी कारकों का उनके बनावट के अनुसार कार्य निश्चित है। प्रकृति में सभी जीव जंतुओं का कार्य भी निश्चित है। यह सोचने की बात है कि सभी पक्षी आसमान में उड़ते हैं, झरना हमेशा नीचे की तरह बहता है और मछलियां पानी में ही तैरती हैं। कभी कोई भी जीव-जंतु प्रकृति के नियमों को नहीं तोड़ता है? क्योंकि वे जानते हैं कि वे इसलिए ही बने हैं। कभी कोई मछली यह नहीं सोचती है कि वह पानी से बाहर आ कर अपना जीवन व्यतीत करे। किसी भी मछली के जीवन का लक्ष्य पानी के अंदर ही होता है। यदि वह पानी से बाहर आकर कोई कार्य करती है, तो वह हमेशा ही अन्य प्राणियों से कमज़ोर पड़ जाएगी और अपने आप को हमेशा ही मूर्ख समझेगी। उसकी संपूर्ण गति पानी में ही है और उसका जीवन एवं लक्ष्य भी पानी में ही है। कभी भी किसी जीव-जंतु पर किसी भी कार्य के करने या ना करने का कोई भी दबाव नहीं होता है लेकिन फिर भी उन्हें उनके कार्यों के बारे में पता होता है। फिर हम इंसान इस बारे में कभी क्यों नहीं सोचते हैं? आज का मनुष्य अपनी प्रतिभाओं को नहीं पहचान पा रहा है क्योंकि इस समाज ने उसके जन्म से उसकी मृत्यु तक के सभी कार्यों को निश्चित कर रखा है। आप समय है बदलाव का, जिसमें हमें केवल अपनी प्रतिभा को विकसित करना है। हमारा भी अर्जुन की तरह केवल एक ही लक्ष्य होना चाहिए और वह लक्ष्य हमारी प्रतिभा होनी चाहिए। किसी भी मनुष्य की प्रतिभा का उद्गम उसके शौक या पसंद से निर्धारित होता है। हमारी प्रतिभा का अर्थ है वह कार्य जिसमें हमें विशेष रूचि है, जिस कारण वह हमारा शौक बन चुका है इसलिए उस कार्य को हम अपने जीवन में सबसे अधिक बार करते हैं। उस कार्य का हम अनेक बार अभ्यास एवं प्रयत्न करते हैं। यदि हम अपने जीवन के सभी कार्यों को जल मानते हैं, तो इसका अर्थ है कि हमारी प्रतिभा एक सागर के समान है, जिसे हमने बूंद-बूंद करके भरा है और बाकी सभी कार्य केवल अनेक गड्ढों में भरे जल के समान है, जिसका कोई अर्थ नहीं है। तो फिर हम उन अनेक गड्ढों में और जल क्यों भरना चाहते हैं? अब समय है उस सागर को और अधिक मात्रा में भरकर महासागर बनाने का अर्थात् उसे विकसित करने का। यदि हम अपना संपूर्ण जीवन भी उन गड्ढों को भरने में लगा दें तब भी वह गड्ढे नहीं भरेंगे। लेकिन उस सागर को और भरने की कोशिश करेंगे तब हम अपने जीवन में और अधिक सफल होते जाएंगे। मनुष्य के जीवन का एक ही अर्थ है एवं एक ही उद्देश्य है। इसका अर्थ है सत्य के मार्ग पर समझदारी से चलना एवं इसका उद्देश्य है अपनी प्रतिभा को एक लक्ष्य मानकर उसे इस अनंत जीवन में हमेशा विकसित करते रहना। जब तक किसी मनुष्य की सांसे चलती हैं, तब तक उसका एक ही उद्देश्य होता है अपनी प्रतिभा को विकसित करते रहना। हमारे जीवन में सत्य एवं हमारी प्रतिभा को छोड़कर बाकी सभी कार्य केवल भ्रम हैं। मनुष्य के सभी रिश्ते स्वार्थ के रिश्ते हैं लेकिन सत्य,समझदारी एवं हमारी प्रतिभा ही हमारे वास्तविक रिश्ते हैं। यदि कोई मनुष्य सत्य, समझदारी एवं उसकी प्रतिभा जैसे जीवन के तीनों कारकों में से कोई भी कारक कमज़ोर पड़ जाता है तो मनुष्य सफलता की तरफ अग्रसर नहीं हो पाता है। आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, जो किसी भी मनुष्य को उसकी प्रतिभा से दूर कर देता है और उसे उसकी वास्तविक क्षमता से कमज़ोर बना देता है। इस दुनिया में कोई भी मनुष्य लक्ष्यहीन नहीं होता है, केवल वह अपने जीवन से हारा हुआ होता है। उसे केवल अपनी प्रतिभा को पहचान कर उसे विकसित करने की आवश्यकता है। कुछ बच्चे बचपन में देरी से चलना सीखते हैं, लेकिन वह कभी ना कभी तो चलते ही हैं, इस कारण यह सिद्ध होता है कि कोई भी मनुष्य चाहे कितना भी कमज़ोर हो लेकिन वह कभी ना कभी सफल अवश्य ही होता है। कुछ लोगों में प्रतिभा थोड़ी कम होती है, लेकिन वे उसे परिश्रम द्वारा विकसित कर सकते हैं और अपने जीवन में सफल हो सकते हैं। हमें कभी हार नहीं माननी चाहिए। जब हम अपने जीवन में अपने प्रतिभा के विपरीत कार्य करते हैं, तो हम उस मछली के सामान अपने आप को मूर्ख समझने लगते हैं जो पानी के बाहर कुछ कार्य करने का प्रयास करती है। हमें अपने कर्म को धर्म बनाने का प्रयास करना चाहिए। इसका अर्थ है कि हमें केवल अपनी प्रतिभा में परिश्रम करना चाहिए, जिससे हमें थकावट भी न हो और हम सकारात्मक मन के साथ सफलता की दिशा में बढ़ते जाएं। हमारी प्रतिभा हमारी वह रूचि है, जो हमें सफलता के मार्ग पर ले जाती है। समय के साथ हमें इन सभी बातों का एहसास होता रहता है। हमें प्रकृति से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। जिस प्रकार भगवान श्री कृष्ण युद्ध भूमि पर अर्जुन के मार्गदर्शक थे, उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य का मार्गदर्शक प्रकृति ही है। प्रकृति से बड़ा और सफल और कोई नहीं है। दुनिया का सबसे बड़ा संतुलन प्रकृति के कारण ही है अर्थात मनुष्य का सबसे बड़ा गुरु प्रकृति है। अतः हमें प्रकृति का सम्मान करना चाहिए, उसे अपना आदर्श मानना चाहिए एवं अपनी प्रतिभा को पहचान कर उसमें परिश्रम करना चाहिए ताकि हम अपने जीवन में सफल हो पाए और हमारी प्रतिभा विकासशील से विकसित हो जाए।



- विकास यादव


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